जब भी आप किसी ट्रेन को पास से देखते हैं, तो उसकी चमकती हुई बॉडी और साफ-सुथरे रंग पर ज़रूर ध्यान जाता होगा। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इतनी बड़ी संख्या में मौजूद ट्रेन डिब्बों को रेलवे कितनी बार रंगता है? क्या यह साल में एक बार होता है? या जब मन हुआ तब?
इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि भारतीय रेलवे के कोचों को कितनी बार रंगा जाता है, इसका क्या नियम है, इसके पीछे क्या तकनीकी और सुरक्षा कारण होते हैं, और यह पूरी प्रक्रिया कैसे होती है।
भारतीय रेलवे में कोच पेंटिंग का महत्व
ट्रेन का रंग केवल दिखावे के लिए नहीं होता। पेंटिंग एक तकनीकी और संरचनात्मक ज़रूरत है, जिससे डिब्बों की लाइफ बढ़ती है, रस्ट और करप्शन से बचाव होता है, और यात्रियों को एक साफ-सुथरी और पेशेवर छवि दिखाई देती है।
इसके अलावा, पेंट से:
- कोच की आइडेंटिटी बनी रहती है (जैसे Mail/Express, Rajdhani, Vande Bharat)
- रेलवे की ब्रांडिंग और जोन की पहचान होती है
- तापमान नियंत्रण में मदद मिलती है (गहरे रंग गर्मी सोखते हैं, हल्के रंग उसे परावर्तित करते हैं)
तो ट्रेन कोच कितनी बार रंगे जाते हैं?
भारतीय रेलवे के नियमों के अनुसार, एक ट्रेन के डिब्बों को औसतन हर 4 से 6 साल में एक बार पूरी तरह से रंगा जाता है। यह प्रक्रिया Periodic Overhaul (POH) के दौरान की जाती है।
Periodic Overhaul (POH) क्या है?
POH एक गहन मरम्मत और पुनर्नवीनीकरण प्रक्रिया है जो हर कोच के साथ एक निश्चित समय के बाद की जाती है। इसमें शामिल होता है:
- पुराना पेंट पूरी तरह से हटाना
- बॉडी की जांच करना
- टूट-फूट की मरम्मत
- और अंत में नया पेंट लगाना
यह प्रक्रिया हर 4–6 साल में या 4.5 लाख किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद होती है — जो पहले हो, उसी पर यह लागू होती है।
कोच पेंटिंग की प्रक्रिया कैसे होती है?
- प्री-इंस्पेक्शन – कोच की पूरी हालत का निरीक्षण किया जाता है
- डिसमेंटलिंग – सीटें, खिड़कियां, पैनल हटाए जाते हैं
- सैंड ब्लास्टिंग – पुराना पेंट और रस्ट हटाने के लिए पूरी बॉडी पर हाई-प्रेशर सैंड का छिड़काव
- प्राइमर कोटिंग – बॉडी पर एंटी-रस्ट प्राइमर लगाया जाता है
- फिनिशिंग पेंटिंग – जरूरत अनुसार पेंट की दो या तीन लेयर लगाई जाती हैं
- मार्किंग और लेबलिंग – कोच नंबर, क्लास, जोनल कोड, ‘X’ मार्क आदि लिखे जाते हैं
- फाइनल इंस्पेक्शन – कोच को ऑपरेशन के लिए फिट घोषित किया जाता है
कौन से रंग और पेंट इस्तेमाल होते हैं?
भारतीय रेलवे अब पारंपरिक ऑयल पेंट की जगह एंटी-करप्शन, एनवायरमेंट फ्रेंडली और लॉन्ग-लास्टिंग पेंट्स का उपयोग करता है।
- PU (Polyurethane) पेंट – ज्यादा टिकाऊ, चमकदार और मौसम-प्रतिरोधी
- Epoxy Primer – रस्ट से सुरक्षा के लिए
- Reflective Paint – रात में दृश्यता के लिए
कुछ ट्रेनों (जैसे वंदे भारत, तेजस, हमसफर) में डिजिटल व्रैपिंग और विंडोज़ ग्राफिक्स भी शामिल किए जाते हैं।
LHB और ICF कोच में कोई अंतर होता है क्या?
हाँ। ICF कोच जो पुराने हैं, उनकी पेंटिंग प्रक्रिया अपेक्षाकृत आसान और सस्ती होती है। वहीं, LHB कोच जिनका स्ट्रक्चर एल्यूमिनियम और स्टेनलेस स्टील से बना होता है, उनमें खास तरह के प्रीट्रीटमेंट और कोटिंग्स की जरूरत होती है।
LHB कोच में ज्यादातर PU पेंटिंग सिस्टम का ही प्रयोग होता है, जो ज्यादा टिकाऊ होता है।
क्या जरूरत पड़ने पर कोच को बार-बार रंगा जाता है?
हाँ, यदि:
- कोच किसी दुर्घटना में क्षतिग्रस्त हुआ हो
- रेलवे जोन उसका उपयोग किसी विशेष सेवा (जैसे कुंभ स्पेशल, मेल फेस्टिवल ट्रेन) के लिए कर रहा हो
- या ब्रांडिंग, इवेंट्स, या प्रमोशन के लिए ग्राफिकल व्रैपिंग करनी हो
तो उस कोच को बार-बार भी रंगा या सजाया जा सकता है।
क्या पेंटिंग प्रक्रिया से ट्रेन ऑपरेशन पर असर पड़ता है?
हाँ, क्योंकि जब कोच POH के लिए वर्कशॉप जाता है, तब वह सेवा में नहीं रहता। इसलिए रेलवे रोटेशन में कोच पेंटिंग करता है ताकि यात्री सेवाओं पर असर न पड़े।
बड़े वर्कशॉप जैसे जगाधरी, परेल, मणिपुर, रेल कोच फैक्ट्री कपूरथला आदि में यह काम होता है।
निष्कर्ष
भारतीय रेलवे में ट्रेन के डिब्बों को केवल सजावट के लिए नहीं, बल्कि तकनीकी रखरखाव, संरचनात्मक मजबूती और यात्रियों की सुविधा के लिए रंगा जाता है। हर कोच को औसतन 4 से 6 साल में एक बार पेंट किया जाता है और इसके पीछे एक पूरी वैज्ञानिक और प्रबंधकीय प्रक्रिया होती है।
अब जब आप अगली बार ट्रेन से सफर करें और किसी कोच को चमकते हुए देखें, तो जान लें — उसकी खूबसूरती के पीछे मेहनत और तकनीक दोनों हैं।